A JOURNEY IN TO HEALING

Dedication : This blog is dedicated tothose great spirits(Sants), who following the tradition of Guru Shishya, deemed me worthy of attention and introduced me to PRAN DHYAN, the method of simplest and highest form of meditation. Where direct and indirect blessings are always with me, by the path shown by the them. With the effect that I guide and sport those who are mentally disturbed in some forms and are in search of peace. In life through positive thinking and meditation I have come back to my self. If you like to come, you’re. Note: I only show you the way, you only have to walk. You will only receive sensations. Come to thy self increase your self power.

समर्पण
यह ब्लॉग उन महान आत्माओं (संतों) को समर्पित है जिन्होंने गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत मुझे इस योग्य समझा और प्राण ध्यान की विधि से मेरा परिचय कराया जोकि ध्यान की सबसे सरलतम एवं उच्चतम विधि है। उन महान संतों को, जिनका परोक्ष / अपरोक्ष आशीर्वाद सदैव मेरे सिर पर रहता है। इस आशय के साथ कि उनके द्वारा दिखाए मार्ग द्वारा मै उन लोगों का सहयोग करूँ जो किसी न किसी रूप में मानसिक रूप से परेशान हैं। जिन्हें शांति की तलाश है. सकारात्मक सोच और प्राण ध्यान के माध्यम से मै अपने पास वापस आ गया हूँ। यदि आप भी आना चाहें तो आपका स्वागत है। ध्यान रहे ! मै केवल आपको मार्ग दिखाऊँगा, चलना आप ही को पड़ेगा। अनुभूतियाँ आप ही को प्राप्त होंगी। अपने खुद के पास आइए, अपनी ऊर्जाशक्ति को बढ़ाईए।

मन क्या है

मन क्या है।

मन और चित्त शक्ति क्या है चेतना परम सूक्ष्म होती है । चेतना भलाई, बुराई अथवा सुख दुःख किसी से भी न तो प्रभावित होती और न इसमें कभी किसी प्रकार की विकृति आती है ।
चेतना सूर्य के प्रकाश की भाँति सदैव निर्लेप व निर्मल बनी रहती है, जैसे सूर्य का प्रकाश कीचड़ को छूने से दूषित नहीं होता है और न ही जल के स्पर्श से पवित्र होता है । सूर्य के प्रकाश में सदपुरूष सतकर्म करते है और दुष्टजन कुकर्म करते रहते है परन्तु प्रकाश अप्रभावित बना रहता है सूर्य का प्रकाश मेघ से अच्छादित तो हो जाता है परन्तु दूषित नहीं होता है व मेघ के हटने पर पुनः यथावत प्रकाशवान हो जाता है ।
चेतना, सदविचार या असदविचार से तथा सत्कर्म अथवा कुकर्म से परिवर्तित अथवा प्रभावित नहीं होती है । वह सदैव सहज व निर्मल बनी रहती है । यद्यपि विचार अथवा कर्म से आच्छादित होने पर उसे पवित्र अथवा दूषित कह दिया जाता है वास्तव में चेतना को निर्मल कर देने का अर्थ मन को निर्मल कर देना है । जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश के उच्च शिखर पर होने की स्थिति मैं तथा निम्न गर्त में होने पर उसमें थोड़ी बहुत भिन्नता आ जाती है फिर भी उसका मूल स्वरूप एक ही रहता है, इसी प्रकार चेतना भी अन्तरस चेतना, बहिष चेतना, मानवीय चेतना, विश्व चेतना आदि के रूप में तत्वतः एक ही होती है यद्यपि चेतना के सारे भले, बुरे विचार, क्रियाकलाप के बावजूद चेतना सदैव निर्मल ही बनी रहती है । विचार से परे स्थित होने पर तथा मन में विलुप्त होने पर मानवीय चेतना, विश्व चेतना में निमग्न हो जाती है । ऐसी स्थिति आने पर मनुष्य का समग्र अस्तित्व आनंदमय हो जाता है किन्तु हमें मन से यथोचित चेतना की शक्ति के सदुपयोग के महत्व को समझना चाहिये । प्रकृति का विधान है कि मनुष्य का मन उसके जीवन के अंत तक निरन्तर सक्रिय व क्रियाशील बना रहता है जबकि मस्तिष्क, मानव देह का एक स्थूल अपव्यय है तथा उसके क्रियाकलाप को लोगों ने मन कहा है। यद्यपि मन का संबंध प्रायः इच्छा, संकल्प, विकल्प से कहा जाता है तथा बुद्धि का संबंध चिन्तन व निर्णय से कहा जाता है फिर भी मन और बुद्धि दोनों को एक ही मान लिया जाता है व मस्तिष्क के समस्त क्रियाकलापों को मन की ही संज्ञा दे दी जाती है और ऐसा माना जाता है कि मस्तिष्क की तरंगे होती है जो जागृत अवस्था में अवचेतन से चेतन स्तर पर उभर कर आती है चेतन स्तर पर उभरने वाले विचारों के जाल को लोगों ने मन कहा है ।

मस्तिष्क के अवचेतन भाग में स्थित मनुष्य का अहम समस्त मानसिक गतिविधियों का केन्द्र बिन्दु होता है जो मनुष्य की समस्याओं के समाधान के लिये समस्याओं को ऊपर उभार कर उन्हें चेतन स्तर पर भेंजता है जहाँ चेतन मस्तिष्क, चिन्तन, मनन, तर्क, कल्पना, अनुमान आदि के द्वारा निर्णय लेता है तथा तदानुसार व्यक्ति को कर्म में प्रवृत कर देता है । इसके अतिरिक्त मस्तिष्क ज्ञान इन्द्रियों से जुड़ा रहता है तथा उनसे प्रत्यक्ष रूप में प्राप्त जानकारी अथवा स्थिति पर भी तत्काल कार्यवाही करने हेतु मनुष्य को निर्देशित करता है । विचार जगत अथवा मनोमय जगत, चेतना के आधार पर ही क्रियाशील होता है । मनुष्य चेतना शक्ति के धुर्वीकरण द्वारा मन का रूपान्तर कर सकता है । हम मन को समझकर ही मन से पार जा सकते है तथा चिŸा शक्ति का सदुपयोग कर सकते है । चिŸा शक्ति का आश्रय लेकर हम मन को रूपान्तरित कर सकते है तथा मन को निर्मल व पारदर्शी बना सकते है ।

मन की सहज अवस्थाएं अनन्त होती हैं तथा हमें मन की सम्पूर्ण अवस्थाओं को स्वीकार करना चाहिये मन को पूरी तरह से जान पाना तो संभव है नहीं परन्तु आध्यात्मिक साधना के द्वारा मन के सूक्ष्म भाव व उसकी शक्तियों के संबंध में काफी कुछ जाना जा सकता है क्योंकि मन की गति अत्यंत ही जटिल कही गई है । मन के विचार प्रायः श्रृंखला के रूप में आते हैं । एक विचार आते ही श्रृंखला का प्रारम्भ हो जाता है तथा कभी-कभी कोई विचार मात्र एक शब्द तक ही सीमित रह जाता है तथा वह भी सहसा लुप्त हो जाता है । मोटे तौर पर एक विचार की स्थिति चेतन स्तर पर प्रायः एक चैथाई सेकेण्ड से 4-5 सेकेण्ड तक की होती है ।

मन, वानर की भाँति कभी तीव्र गति से, कभी मन्द गति से, कभी निरर्थक ऊछल-कूद करता हुआ चलता है । अनेकों बार विचार द्रुतगति से उभर कर आने के कारण एक-दूसरे को आच्छादित कर देते हैं तथा विचारों में संघर्ष सा होने लगता है ।

कभी मन चिन्तन बिन्दु से ऊबकर अथवा उसे अनावश्यक मानकर अन्य किसी अधिक महत्वपूर्ण अथवा रोचक विषय पर पहुँच जाता है मन विचार के महत्व अनुसार ही उसकी अवधि का निर्णय करता है ।

मन कभी तर्क करता है कभी गंभीर चिन्तन, कभी खोज, कभी मनोरंजन, कभी कल्पना, कभी अनुमान, कभी मन को शैतानी करना भी सूझता है । अनेक बार मन भ्रान्त होकर ठहराव की स्थिति में भी आ जाता है तथा निर्णय न ले पाने के कारण व्याकुल हो जाता है । कभी एक ही विचार भँवरे की भाँति मंडराता रहता है तथा थोड़े-थोड़े अन्तराल के बाद पुनः आ जाता है । निद्रा से जागने पर तथा निद्रा आने से पहले उसके बिल्कुल सनिकट पहुँचने की स्थिति में; दोनों अवस्थाओं में मन प्रायः शून्यता की स्थिति में रहता है । मन किसी विषम परिस्थिति से घिर जाने पर, शारीरिक रोग से ग्रस्त होने पर, उदर में दूषित वायु, गैस आदि का उपद्रव होने पर, शारीरिक एवं मानसिक थकान होने पर तथा चिन्ता व भय से ग्रस्त होने पर व्याकुल हो जाता है । मन कभी स्थिर, कभी उदास, कभी प्रसन्न, कभी अशान्त, कभी शान्त होता है, फिर भी मनुष्य के लिये यह संभव है कि वह सदैव शान्त भाव बनाये रखने का प्रयास करके उसमें सफलता प्राप्त कर सकता है तथा ऐसी अवस्था को भी प्राप्त कर सकता है जब उसे कोई घटना व परिस्थिति विचलित न कर सके । मनुष्य यदि मानसिक समस्याओं के प्रति तटस्थ दृष्टि अपनाले व शान्त भाव बनाये रखे तो उनका समाधान अपने आप ही हो जाता है । किसी बात को न समझ पाने के कारण; भ्रान्ति होने के कारण अथवा अकारण व्याकुल होने पर, तटस्थ दृष्टि से मानसिक अवस्था को देखने से व्याकुलता शान्त हो जाती है तथा व्याकुलता को पूरी तरह झांककर देखने से व्याकुलता समाप्त हो जाती है।

कभी मन किसी पुराने अपराध बोध के कारण; अकारण ही विपत्ति आने की आशंका कर लेता है और कभी सोचता है कि ऐसा किया तो विपत्ति आ घेरेगी । मनुष्य मन की झूठी आवाज को अन्र्तआत्मा की ध्वनि मानकर विपत्ति आने की कल्पना कर लेता है मन की झूठी आवाज को भविष्य सूचक मान लेना पूर्णतः अविवेक है ।

हमंे अभद्र, अनैतिक, अशुभ, भयावह विचार आने पर उन्हें रोकना नहीं चाहिये बल्कि उन्हें पूरी तरह आकर गुजर जाने देना चाहिये क्योंकि विचारो को रोकने, ढकेलने, दबाने से विचार ओर अधिक सशक्त हो जाते है तथा व्याकुलता अकारण ही बढ़ा देते है। मनुष्य को चाहिये कि वह उन्हें मन की स्वभाविक क्रिया मानकर तटस्थ रहे व विचारों को गुजर जाने दे। अशुभ विचार भी पूर्ण रूप झांक कर देखने पर स्वयं ही निवृत हो जाते है। कभी किसी के साथ किया हुआ दुव्र्यवहार अथवा कहा हुआ कटु वाक्य मन में सुई की तरह गड़ जाता है तथा निकलता ही नहीं, वह बार-बार चेतन स्तर पर उभरकर पीड़ा पहुँचाता रहता है । वास्तव में हमारा अवचेतन हमारी समस्त पीड़ाओं की उलझनों को उभारकर उन्हें चेतन स्तर पर समाधान हेतु प्रस्तुत करता है । हम अतीत की घटनाओं की कटुता के प्रति क्षमा भाव अपनाकर उनका समाधान कर सकते है । मन के ऊब जाने, उकता जाने पर, मन की उच्चाटन अवस्था से निवृत्ति पाने हेतु हमें किसी रोचक ग्रन्थ का अध्ययन अथवा किसी रोचक कार्य में लग जाना चाहिये ताकि मन शान्त व सामान्य हो जावे ।

सुन्दर स्थान का भ्रमण करने से मन में सजीवता आती है । स्वच्छ जल, स्वच्छ वायु व सुन्दर वातावरण मन में अनुकूलता भर देते है तथा चेतना स्तर पर मस्तिष्क की कोई विशेष शक्ति सचेत प्रहरी अथवा नियंत्रक के रूप में अवचेतन से उभरकर आने वाले विचारों पर अंकुश लगा देती है।

मनोविज्ञान द्वारा मानस के विभिन्न विभागों का उल्लेख किये जाने पर उसके विखण्डित होने का सन्देह व्यक्त किया गया परन्तु वास्तविकता यही है कि समस्त क्रियाकलापों से संलग्न वृत्तियों का संचालन मानस ही करता है। उसी के विभिन्न उपभाग हैं जो चित्त चेतन अर्द्धचेतन तथा हृदय आदि नामों से अभिहित किये जाते हैं। समस्त कार्यों के मूल में मानस ही क्रियाशील रहता है। मानस के स्वरूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका अर्द्धचेतन मन की है। जिसमें संकलित अनुभवों एवं विचारों को हम स्पष्ट रूप से नहीं जानते परन्तु कहीं न कहीं वह भाव एवं विचार अपने होने का आभास देते रहते हैं। यदि अर्द्धचेतन मन को अनुभूतियों भावों एवं विचारों का भण्डार गृह कहा जाये तो अनुचित न होगा। चेतन मन में क्रियाशील विवेक जब अर्द्धचेतन मन के भावों एवं विचारों को स्पर्श करता है तब वह अनुभव एवं विचार स्पष्ट एवं कलात्मक रूप से अभिव्यक्ति पाने लगते हैं। अर्द्धचेतन के विषय में अमीलावेल ने कहा है कि अर्द्धचेतन का रचना प्रक्रिया में विशेष महत्त्व है।२० अवचेतन मन भी चेतनतर पक्षों में से एक है। यह चेतन ओर अचेतन के बीच की प्रक्रिया है। साहित्यकार और कलाकार इसी के सहयोग से कला एवं साहित्य का सृजन करते हैं। मनुष्य कभी-कभी अत्यधिक अचेतन अवस्था में रहता है। उसके सामने ऐसी स्थिति भी आती है जब वह अपने भाव से अपरिचित सा रहता है। वह अनजाने में ऐसा कुछ कर जाता है जिसे करना उसका ध्येय नहीं होता। मनुष्य का स्वभाव उसका व्यवहार एवं उसके द्वारा किये जाने वाले क्रियाकलाप उसके अचेतन मन से प्रभावित होते हैं। अचेतन के द्वारा आदमी ऐसा काम करता है जिसके मूल उत्स का ज्ञान उसे नहीं होता या मिथ्या ज्ञान होता है। उसी के द्वारा क्रिया निष्पन्न होती है वही हत्या करता है धर्म या अधर्म करता है पर वह उसके लिए बाध्य होता है लाचार रहता है वह कार्य उसकी असहायता बेबसी या लाचारी के रूप में होता है।२१ चेतन मानस के अन्तर्गत विवेक सक्रिय रूप से क्रियाशील रहता है। उसमें बोधात्मक शक्ति होती है। यद्यपि चेतन मानस का क्षेत्र सीमित है। समय-समय पर धुंधलकों में छुपी अव्यक्त अनुभूति चेतना के प्रकाश से टकराकर व्यक्त रूप पाती है।चेतन का अर्थ है विमर्शक विचारशील बुद्धि जो किसी भी वस्तु को अपने से अलग वस्तु के रूप में स्थिर कर विचार करती है।२२ चित्त भी मानस के कार्यक्षेत्र में सक्रिय भूमिका निभाता है। चित्त में चेतना जागृत होती है अनुभूति होती है। जगत का बोध कराने वाली शक्ति भी यह चित्त ही है। शून्यवादियों ने चित्त को अनास्तित्त्व और अनुत्पाद माना था किन्तु विज्ञानवादी चित्त का अस्तित्त्व मानते हैं और संसार को चित्त की भ्रान्ति के रूप में स्वीकार करते हैं।२३ चित्त से जुड़ी धारणा हो अथवा अन्य किसी भी विषय से इन सबके मूल में चेतना है। मानस का प्रमुख गुण उसकी चेतना है। चेतना स्वभाव से परिवर्तनशील है। समय परिस्थितियां परिवेश सामाजिक एवं पारिवारिक स्थिति चेतना के स्वरूप को विशेष रूप से प्रभावित करते हैं। साहित्य में प्रायः हृदय पक्ष की चर्चा की जाती है। यह हृदय पक्ष कोमल भावनायें एवं कला पक्ष चेतना शक्ति की ही देन है। मानस का कोमल कल्पना एवं अनुभूति वाला भाव हृदय पक्ष एवं मानस के विवेक पक्ष से उत्पन्न भाग कला पक्ष कहलाता है। वस्तुस्थिति एवं घटना को देखने उसके महत्त्व को समझने का कार्य चेतना ही करती है। यदि हमारी चेतना अखण्ड और अविच्छिन्न न होती तो यह अनुभव हमें न होता। यह अखण्डता और अविच्छिन्नता साहचर्य से ही सम्भव होती है। विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं में साहचर्य के द्वारा इतना घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो जाता है कि वे मिलकर एक चेतना का अंग बन जाती है।२४ १९वीं शताब्दी में मस्तिष्क मानस को लेकर दी गयी परिभाषा केवल असहमति के लिये ही प्रेरित नहीं करती अपितु सोचने पर विवश करती है। वैज्ञानिक एवं दार्शनिक लॉक और न्यूटन ने मस्तिष्क के विषय में कहा है कि -मस्तिष्क केवल ऐसा पटल है जिस पर बाह्‌य जगत अपनी आकृतियां अंकित करता जाता है। इसलिए वह स्थूल जगत की रेखा-सीमाओं को अंकित करने का एक निष्क्रिय माध्यम है।२५ शरीर के सर्वाधिक क्रियाशील जागरूक एवं सक्रिय माध्यम को निष्क्रिय घोषित करना हज+म नहीं होता। मस्तिष्क पटल पर अंकित रेखायें अनुभव द्वारा ही सम्भव है और अनुभव की रेखाओं से मस्तिष्क चित्रांकित ही नहीं करता अपितु उसके आधार पर विचारों को भी जन्म देता है। यदि मस्तिष्क कार्य करना बन्द कर दे तो मनुष्य का विकास सम्भवतः रूक जायेगा। अर्द्ध विकसित मस्तिष्क का बालक अपनी क्षमतानुसार ही अनुभव करता है तथा व्यवहार करता है। अनुभव का आधार चाहे स्पर्श हो आस्वादन हो अथवा दृश्यगत हो उस पर होने वाली प्रतिक्रिया मस्तिष्क की ही होती है। प्लेटो के अनुसार साहित्य एवं कला अनुकृति की अनुकृति है। मस्तिष्क ही वह सक्रिय अंग है जो सृष्टि के ग्राह्‌य तत्त्वों को आत्मसात्‌ कर चिन्तन की दिशा प्रदान करता है। मानस की अनिवार्यतम्‌ इकाई चित्त जो मस्तिष्क से इतर नहीं है वह मनुष्य को चिन्तन प्रदान करती है साथ ही उसके व्यक्तित्त्व का विकास कर उसे सांसारिक प्राणियों में श्रेष्ठ स्थान प्रदान करती है। चित्त जगत का आभास देता है इसमें चेतना मुक्त विचरण करती है। प्रायः चेतना और चित्त एक अर्थ में लिये जाते हैं। इसके अन्तर्गत संवेदना चिन्तन अनुभूति आदि कार्य सम्पन्न होते हैं। डॉ० रमेश कुन्तल मेघ ने मानस के विविध स्वरूपों पर स्थान-स्थान पर मनोविश्लेषणात्मक ढंग से प्रकाश डाला है। उनका मानना है कि चेतना में निम्न प्रकार की मानसिक क्रियायें शामिल हैं जैसे -संवेदना प्रत्यक्षीकरण अवधारणा चिन्तन अनुभूति और संकल्प। इस तरह यह मन बुद्धि अहंकार का संश्लेस है जिसे चित्त भी कहते हैं।२५ चेतना मनुष्य को जीवन्त होने का आभास तथा विकास की नयी दिशा प्रदान करती है। वह चेतना के आधार पर चिन्तन कर विवेक के आधार पर विचार व्यक्त करता है। चेतना एक चिन्तनात्मक अभिवृत्ति का द्योतक है जो व्यक्ति को स्वयं के प्रति तथा विभिन्न कोटि की स्पष्टता तथा जटिलता वाले पर्यावरण के प्रति जागरूक करती है। चेतना सामाजिक यथार्थता में संस्कृति पैटर्नो प्रतीकों मूल्यों विचारों और आदर्शों की भूमिका उद्घाटित करती है। चेतना का स्व रूप वैयक्तिक तथा हम रूप सामाजिक है।सामूहिक मस्तिष्क एवं संचित अवचेतन के विभिन्न उपसिद्धान्त आदि चेतना को एक व्यक्ति तक सीमित नहीं करते बल्कि उसे उन्मीलन की प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत करते हैं।२७ मानस की सक्रिय भूमिका में समाज समसामयिक परिस्थितियों से पूरी तरह प्रभावित होता है। सामाजिक मनुष्य अपने चिन्तन पक्ष द्वारा विचार प्रस्तुत करता है। साइके (मानस या शक्ति मनुष्य की मानसिक दुनिया में इच्छा क्रिया के जालों को फैलाती तथा बटोरती है।२८ चित्ति में चेतन अर्द्धचेतन अचेतन का द्वन्द्व चलता रहता है। निष्कर्ष रूप में विकास की दिशा यही से प्राप्त होती है। मानस की धारणा में बहुत व्यापक और महत धारणा निष्पन्दन क्रिया व्यक्ति और मानवता आदि का द्वन्द्वात्मक समाहार हो सकता है।२९ चेतना मानस का वह महत्त्वपूर्ण अंग है जिसमें मन एवं मस्तिष्क समन्वित रूप से क्रियाशील रहते हैं। अनुभूति और चिन्तन का समायोजित रूप चेतना है और इसी आधार पर मनुष्य का चारित्राक विकास होता है। हिन्दी विश्वकोश में इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि चेतना मन एवं मस्तिष्क के संयोजन से जन्म लेती है। जिससे अनुभूतिगत ज्ञान विकसित होता है। मनोविज्ञान की दृष्टि से चेतना मानव में उपस्थित वह तत्त्व है जिसके कारण उसे सभी प्रकार की अनुभूतियाँ होती है। इसी के कारण हमें सुख-दुःख की अनुभूति भी होती है और हम इसी के कारण अनेक प्रकार के निश्चय करते तथा अनेक पदार्थों की प्राप्ति के लिये चेष्टा करते हैं।३०
मन के सम्बन्ध में कहा गया है कि वही इन्द्रियों को अनुभव करता है तथा मानवीय व्यवहार को नियन्त्रित करता है। प्रसिद्ध उपन्यासकार जैनेन्द्र मन को व्यक्तिगत अनुभूति का आधार मानते है। वह वस्तु और आत्मा के बीच सम्बन्ध स्थापित करने वाली शक्ति मन को मानते हैं। उनके अनुसार चेतना जहाँ स्वकीयता धारण कर लेती है वही मन के व्यापार की सम्भवता है। मन स्वकीयता से आरम्भ होकर परकीयता के प्रति खुलता है। वह आत्मा और वस्तु के बीच बोधानुभूति का सेतु है। इसके द्वारा ही अभ्यंतर में बर्हिजगत की प्रतीति होती है।४४ बाह्‌य जगत और आन्तरिक जगत के मध्य तादात्म्य स्थापित करने का कार्य मन ही करता हैं अन्तर्मन के और भी कई स्तर हैं। जैनेन्द्र ने मन के अनेक स्तरों का उल्लेख किया है। आत्मा और वस्तु - दो क्षेत्रों के बीच सेतु बंध के रूप में होने के कारण मन के दो स्तर - बाह्‌य और अन्तः विशेषणों से युक्त होकर बर्हिमन और अन्तर्मन के रूप में सम्भव होते हैं। अन्तर्मन के अन्य स्तर भी है जिन्हें अन्तरतर मन तथा अन्तरमन मन कहा जा सकता है।४५ मन की बाहरी अवस्था वह है जो बाह्‌य वस्तुओं से प्रभावित होती है जो दृष्टव्य है और मन का अन्तर्गत अनुभूति से सम्बद्ध है। जो सुखद और आनन्ददायक होकर भी अस्पष्ट है। जैनेन्द्र विचारों को व्यक्तिगत मानते हैं जो मनुष्य की निजी अनुभूति का परिणाम होते हैं पर वह व्यक्त होकर जनसामान्य से जुड़ जाते हैं। इस प्रकार वह स्वकीया विचार खुलकर परकीया हो जाते हैं।
सन्दर्भ
१ सं० रामचन्द्र वर्मा प्रामाणिक हिन्दी कोश लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद संस्करण २००० पृ० ६६०२ सं० धीरेद्र वर्मा हिन्दी साहित्य कोश भाग-१ ज्ञान मण्डल लिमिटेड वाराणसी पृ० ४९५३ सं० डॉ० नगेन्द्र मानविकी पारिभाषिक कोश दर्शन खण्ड राजकमल प्रकाशन पृ० १५३४-५ डॉ० एम०एस० दुधनीकर प्रसाद साहित्य का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन अलका प्रकाशन किदवई नगर कानपुर पृ० १८ एवं पृ० १९६ सं० रामचन्द्र वर्मा मानक हिन्दी कोश भाग-४ हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग पृ० २८६७ श्रीमती प्रभारानी भाटिया सूर की गोपिका एक मनोवैज्ञानिक विवेचना स्मृति प्रकाशन इलाहाबाद- पृ० ८-९८ डॉ० रामविलास शर्मा आस्था और सौन्दर्य किताब महल इलाहाबाद पृ० ४९ डॉ० मोहनलाल कपूर हिन्दी उपन्यास में चेतना प्रवाह पद्धति साकेत समीर प्रकाशन दिल्ली-३४ पृ० ११० डॉ० विजय कुलश्रेष्ठ जैनेन्द्र के उपन्यासों की विवेचना पूर्वोदय प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली पृ० ७०११-१८ डॉ० भगीरथ मिश्र पाश्चात्य काव्यशास्त्रा विश्वविद्यालय प्रकाशन चौक वाराणसी पृ० ११०-१११ पृ० १११ ११२ ११२ ११३ ११४-११५ ११५ ११६१९ सं० आई०टी० फ्लू दर्शन कोश पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली-५५ १९८८२० हिन्दी साहित्य कोश भाग-१ पृ० ५१२१-२२ डॉ० देवराज उपाध्याय कथा साहित्य के मनोवैज्ञानिक समीक्षा सिद्धान्त सौभाग्य प्रकाशन, इलाहाबाद पृ० ५ ११२३-२४ हिन्दी साहित्य कोश भाग-१ पृ० २५५ २४७२५ डॉ० राजेन्द्र वर्मा साहित्य समीक्षा के पाश्चात्य मानदण्ड मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी भोपाल पृ० ८९२६-२७ सं० डॉ० नामवर सिंह आलोचना जनवरी-मार्च १९७६ पृ० २१ २१२८-२९ सं० डॉ० नामवर सिंह आलोचना जुलाई-सितम्बर १९६९ पृ० ४१ ४२३० सं० नगेन्द्रनाथ बसु हिन्दी विश्वकोश भाग-४ बी०आर० पब्लिशिंग हाउस दिल्ली पृ० २८२३१ सं० इब्राहीम शरीफ विश्वज्ञान संहिता-१ हिन्दी विकास समिति नई दिल्ली पृ० १०८३२-३३ सं० सुधाकर पाण्डेय रामचन्द्र शुक्ल प्रतिनिधि निबंध राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली-२ पृ० ६१ ६४३४ डॉ० मधु जैन यशपाल के उपन्यासों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण अभिलाषा प्रकाशन कानपुर पृ० ३९३५ रामचन्द्र शुक्ल प्रतिनिधि निबंध कविता क्या है पृ० ६५३६-३७ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली भाग-७ राजकमल प्रकाशन दिल्ली पृ० १४६ १३१३८ डॉ० नगेन्द्र रस सिद्धान्त नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली प्रथम संस्करण १९६४ पृ० ११४३९-४० सं० नेमिचन्द्र जैन मुक्तिबोध रचनावली भाग-४ पेपर बैक्स राजकमल प्रकाशन दिल्ली पृ० १२० २०४१-४२ आस्था और सौन्दर्य पृ० २६ ३०-३१४३ प्रसाद साहित्य का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन पृ० १८४४ जैनेन्द्र समय समस्या और सिद्धान्त पूर्वोदय प्रकाशन दिल्ली पृ० ५०४-५४५ वही पृ० ५३८४६ इलाचन्द्र जोशी दैनिक जीवन और मनोविज्ञान इण्डियन प्रेस लि० प्रयाग पृ० ८५४७ डॉ० गोपालराय अज्ञेय और उनके उपन्यास दि मैकमिलन कम्पनी ऑफ इण्डिया लि० दिल्ली पृ० ३५४८-४९ भरत सिंह प्रेमचन्द और प्रसाद की जीवन दृष्टि और कहानी कला लघुशोध प्रबंध अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अलीगढ़ १९७८ पृ० १० २२५० साहित्य समीक्षा के पाश्चात्य मानदण्ड पृ० १६८५१ राष्ट्रीय सहारा दैनिक समाचार पत्र दिल्ली संस्करण रविवार २५ मार्च २००१ पृ० ५५२ यशपाल के उपन्यासों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पृ० ३९५३ डॉ० कमला आत्रय आधुानिक मनोविज्ञान और सूर का काव्य वि०भू० प्रकाशन साहिबाबाद-५ पृ० १३-१४५४ हिन्दी विश्वकोश भाग-९ पृ० २३६५५ हिन्दी साहित्य कोश भाग-१ पृ० ८०५६ मानविकी पारिभाषिक कोश मनोविज्ञान खण्ड पृ० ११९-२०५७ सं० डॉ० विजेन्द्र स्नातक डॉ० परमानन्द श्रीवास्तव एवं डॉ० कमलकिशोर गोयनका जैनेन्द्र और उनके उपन्यास मैकमिलन उपन्यासकार मूल्यांकन माला पृ० ५९५८ सं० डॉ० नगेन्द्र लेखक श्यामसुन्दर दास भारतीय काव्यशास्त्रा की परम्परा नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली पृ० ४१३५९ डॉ० शकुन्तला शर्मा जैनेन्द्र की कहानियाँ एक मूल्यांकन अभिनव प्रकाशन दरियागंज दिल्ली-२ पृ० १७
60 डॉ० बलराज सिंह राणा उपन्यासकार जैनेन्द्र के पात्रों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन संजय प्रकाशन फेज-२ दिल्ली-५२ पृ० ४१६१ इलाचन्द्र जोशी प्रेत और छाया भारती भण्डार इलाहाबाद चतुर्थ संस्करण भूमिका भाग६२-६३ प्रसाद साहित्य का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन पृ० २० ३८
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http://www.jagran.com/miscellaneous/8925412.html
मन के रूप अनेक
Updated on: Tue, 21 Feb 2012 07:02 PM (IST)
मन के तीन रूप माने गए हैं-चेतन, अवचेतन और अचेतन, लेकिन मन की सख्या इतने तक ही सीमित नहीं है। कई बार ये तीन मन तीन हजार बन जाते हैं। कैसे और कब बनता है मन एक से अनेक..?

जब हम कुछ सोचते हैं या किसी से बात करते हैं, तब हमारा एक ही मन सक्रिय रहता है। यहां तक कि जब हम निर्णय लेने के लिए द्वंद्व की स्थिति में रहते हैं, तब भी। हालांकि तब लगता है कि हमारे दो मन हो गए हैं, जिसमें से एक हां कह रहा है तो दूसरा नहीं। लेकिन यहां भी मन एक ही होता है, बस वही मन विभाजित होकर दो हो जाता है।

सामान्यतया मन [चेतना] के तीन स्तर माने गए हैं- चेतन, अवचेतन और अचेतन मन। लेकिन मन की संख्या यहीं तक सीमित नहीं है। ये तीन मन परिवर्तन एवं सम्मिश्रणों द्वारा तीन हजार मन बन जाते हैं, लेकिन इनका उद्गम इन तीन स्तरों से ही होता है।

चेतन मन वह है, जिसे हम जानते हैं। इसके आधार पर अपने सारे काम करते हैं। यह हमारे मन की जाग्रत अवस्था है। विचारों के स्तर पर जितने भी द्वंद्व, निर्णय या संदेह पैदा होते हैं, वे चेतन मन की ही देन हैं। यही मन सोचता-विचारता है।

लेकिन चेतन मन संचालित होता है अवचेतन और अचेतन मन से। यानी हमारे विचारों और व्यवहार की बागडोर ऐसी अदृश्य शक्ति के हाथ में होती है, जो हमारे मन को कठपुतली की तरह नचाती है। हम जो भी बात कहते हैं, सोचते हैं, उसके मूल में अवचेतन मन होता है।

अवचेतन आधा जाग रहा है और आधा सो रहा है। मूलत: यह स्वप्न की स्थिति है। जिस तरह स्वप्न पर नियंत्रण नहीं होता, उसी प्रकार अवचेतन पर भी नियंत्रण नहीं होता। हम जाग रहे हैं, तो हम फैसला कर सकते हैं कि हमें क्या देखना है, क्या नहीं।लेकिन सोते हुए हम स्वप्न में क्या देखेंगे, यह फैसला नहीं कर सकते। स्वप्न झूठे होकर भी सच से कम नहींलगते।

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि जो इच्छाएं पूरी नहीं हो पातीं, वे अवचेतन मन में आ जाती हैं। फिर कुछ समय बाद वे अचेतन मन में चली जाती हैं। भले ही हम उन्हे भूल जाएं, वे नष्ट नहीं होतीं। फ्रायड का मानना था कि अचेतन मन कबाड़खाना है, जहां सिर्फ गंदी और बुरी बातें पड़ी होती हैं, पर भारतीय विचारकों का मानना है कि संस्कार के रूप में अच्छी बातें भी वहां जाती हैं।

अचेतन एक प्रकार का निष्क्रिय मन है। यहां कुछ नहीं होता। यह भंडार गृह है। हमारा अवचेतन या चेतन मन जब इन वस्तुओं [विचारों] में से किसी की मांग करता है, तब अचेतन मन उसकी सप्लाई कर देता है।

निष्क्रिय होकर भी अचेतन मन में कुछ न कुछ उबलता-उफनता रहता है, जो हमारे व्यक्तित्व के रूप में उभर कर सामने आता है। हम भले ही अचेतन मन की उपेक्षा करें, लेकिन चेतन मन और अवचेतन मन जो कुछ भी करते हैं, वे सब वही करते हैं, जो अचेतन मन उनसे कराता है।

फ्रायड ने बिल्कुल सही कहा था कि मन एक हिमखंड की तरह होता है, जिसका 10 प्रतिशत हिस्सा ही ऊपर दिखाई देता है। 90 फीसदी भाग तो पानी के अंदर छिपा होता है। इसी तरह युंग ने भी कहा था - ज्ञात मन [चेतन] तो केवल छोटे से द्वीप के समान है, पर चारों तरफ फैला महासागर अज्ञात [अचेतन] मन है। यही अज्ञात मन सब कुछ है।

[डॉ. विजय अग्रवाल]

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**मन के रूप अनेक**

मन के तीन रूप माने गए हैं-चेतन, अवचेतन और अचेतन, लेकिन मन की संख्या इतने तक ही सीमित नहीं है। कई बार ये तीन मन तीन हजार बन जाते हैं। कैसे और कब बनता है मन एक से अनेक..?


जब हम कुछ सोचते हैं या किसी से बात करते हैं, तब हमारा एक ही मन सक्रिय रहता है। यहां तक कि जब हम निर्णय लेने के लिए द्वंद्व की स्थिति में रहते हैं, तब भी। हालांकि तब लगता है कि हमारे दो मन हो गए हैं, जिसमें से एक हां कह रहा है तो दूसरा नहीं। लेकिन यहां भी मन एक ही होता है, बस वही मन विभाजित होकर दो हो जाता है।

सामान्यतया मन [चेतना] के तीन स्तर माने गए हैं- चेतन, अवचेतन और अचेतन मन। लेकिन मन की संख्या यहीं तक सीमित नहीं है। ये तीन मन परिवर्तन एवं सम्मिश्रणों द्वारा तीन हजार मन बन जाते हैं, लेकिन इनका उद्गम इन तीन स्तरों से ही होता है।

चेतन मन वह है, जिसे हम जानते हैं। इसके आधार पर अपने सारे काम करते हैं। यह हमारे मन की जाग्रत अवस्था है। विचारों के स्तर पर जितने भी द्वंद्व, निर्णय या संदेह पैदा होते हैं, वे चेतन मन की ही देन हैं। यही मन सोचता-विचारता है।

लेकिन चेतन मन संचालित होता है अवचेतन और अचेतन मन से। यानी हमारे विचारों और व्यवहार की बागडोर ऐसी अदृश्य शक्ति के हाथ में होती है, जो हमारे मन को कठपुतली की तरह नचाती है। हम जो भी बात कहते हैं, सोचते हैं, उसके मूल में अवचेतन मन होता है।

अवचेतन आधा जाग रहा है और आधा सो रहा है। मूलत: यह स्वप्न की स्थिति है। जिस तरह स्वप्न पर नियंत्रण नहीं होता, उसी प्रकार अवचेतन पर भी नियंत्रण नहीं होता। हम जाग रहे हैं, तो हम फैसला कर सकते हैं कि हमें क्या देखना है, क्या नहीं।लेकिन सोते हुए हम स्वप्न में क्या देखेंगे, यह फैसला नहीं कर सकते। स्वप्न झूठे होकर भी सच से कम नहींलगते।

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि जो इच्छाएं पूरी नहीं हो पातीं, वे अवचेतन मन में आ जाती हैं। फिर कुछ समय बाद वे अचेतन मन में चली जाती हैं। भले ही हम उन्हें भूल जाएं, वे नष्ट नहीं होतीं। फ्रायड का मानना था कि अचेतन मन कबाड़खाना है, जहां सिर्फ गंदी और बुरी बातें पड़ी होती हैं, पर भारतीय विचारकों का मानना है कि संस्कार के रूप में अच्छी बातें भी वहां जाती हैं।

अचेतन एक प्रकार का निष्क्रिय मन है। यहां कुछ नहीं होता। यह भंडार गृह है। हमारा अवचेतन या चेतन मन जब इन वस्तुओं [विचारों] में से किसी की मांग करता है, तब अचेतन मन उसकी सप्लाई कर देता है।

निष्क्रिय होकर भी अचेतन मन में कुछ न कुछ उबलता-उफनता रहता है, जो हमारे व्यक्तित्व के रूप में उभर कर सामने आता है। हम भले ही अचेतन मन की उपेक्षा करें, लेकिन चेतन मन और अवचेतन मन जो कुछ भी करते हैं, वे सब वही करते हैं, जो अचेतन मन उनसे कराता है।

फ्रायड ने बिल्कुल सही कहा था कि मन एक हिमखंड की तरह होता है, जिसका 10 प्रतिशत हिस्सा ही ऊपर दिखाई देता है। 90 फीसदी भाग तो पानी के अंदर छिपा होता है। इसी तरह युंग ने भी कहा था - ज्ञात मन [चेतन] तो केवल छोटे से द्वीप के समान है, पर चारों तरफ फैला महासागर अज्ञात [अचेतन] मन है। यही अज्ञात मन सब कुछ है।
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मन

प्रत्येक प्राणी के शरीर में अत्यंत सूक्ष्म और केवल एक मन होता है। यह अत्यंत द्रुतगति वाला और प्रत्येक इंद्रिय का नियंत्रक होता है। किंतु यह स्वयं भी आत्मा के संपर्क के बिना अचेतन होने से निष्क्रिय रहता है। प्रत्येक व्यक्ति के मन में सत्व, रज और तम, ये तीनों प्राकृतिक गुण होते हुए भी इनमें से किसी एक की सामान्यत: प्रबलता रहती है और उसी के अनुसार व्यक्ति सात्विक, राजस या तामस होता है, किंतु समय-समय पर आहार, आचार एवं परिस्थितियों के प्रभाव से दसरे गुणों का भी प्राबल्य हो जाता है। इसका ज्ञान प्रवृत्तियों के लक्षणों द्वारा होता है, यथा राग-द्वेष-शून्य यथार्थद्रष्टा मन सात्विक, रागयुक्त, सचेष्ट और चंचल मन राजस और आलस्य, दीर्घसूत्रता एवं निष्क्रियता आदि युक्त मन तामस होता है। इसीलिए सात्विक मन को शुद्ध, सत्व या प्राकृतिक माना जाता है और रज तथा तम उसके दोष कहे गए हैं। आत्मा से चेतनता प्राप्त कर प्राकृतिक या सदोष मन अपने गुणों के अनुसार इंद्रियों को अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त करता है और उसी के अनुरूप शारीरिक कार्य होते हैं। आत्मा मन के द्वारा ही इंद्रियों और शरीरावयवों को प्रवृत्त करता है, क्योंकि मन ही उसका करण (इंस्ट्रुमेंट) है। इसीलिए मन का संपर्क जिस इंद्रिय के साथ होता है उसी के द्वारा ज्ञान होता है, दूसरे के द्वारा नहीं। क्योंकि मन एक ओर सूक्ष्म होता है, अत: एक साथ उसका अनेक इंद्रियों के साथ संपर्क सभव नहीं है। फिर भी उसकी गति इतनी त्व्रीा है कि वह एक के बाद दूसरी इंद्रिय के संपर्क में श्घ्रीाता से परिवर्तित होता है, जिससे हमें यही ज्ञात होता है कि सभी के साथ उसका संपर्क है और सब कार्य एक साथ हो रहे हैं, किंतु वास्तव में ऐसा नहीं होता।
[संपादित करें]आत्मा

आत्मा पंचमहाभूत और मन से भिन्न, चेतनावान्‌, निर्विकार और नित्य है तथा साक्षी स्वरूप है, क्योंकि स्वयं निर्विकार तथा निष्क्रियश् है। इसके संपर्क से सक्रिय किंतु अचेतन मन, इंद्रियों और शरीर में चेतना का संचार होता है और वे सचेष्ट होते हैं। आत्मा में रूप, रंग, आकृति आदि कोई चिह्न नहीं है, किंतु उसके बिना शरीर अचेतन होने के कारण निश्चेष्ट पड़ा रहता है और मृत कहलता है तथा उसके संपर्क से ही उसमें चेतना आती है तब उसे जीवित कहा जाता है और उसमें अनेक स्वाभाविक क्रियाएं होने लगती हैं; जैसे श्वासोच्छ्‌वास, छोटे से बड़ा होना और कटे हुए घाव भरना आदि, पलकों का खुलना और बंद होना, जीवन के लक्षण, मन की गति, एक इंद्रिय से हुए ज्ञान का दूसरी इंद्रिय पर प्रभाव होना (जैसे आँख से किसी सुंदर, मधुर फल को देखकर मुँह में पानी आना), विभिन्न इंद्रियों और अवयवों को विभन्न कार्यों में प्रवृत्त करना, विषयों का ग्रहण और धारण करना, स्वप्न में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचना, एक आँख से देखी वस्तु का दूसरी आँख से भी अनुभव करना। इच्छा, द्वेष, सुख, दु:ख, प्रयत्न, धैर्य, बुद्धि, स्मरण शक्ति, अहंकार आदि शरीर में आत्मा के होने पर ही होते हैं; आत्मारहित मृत शरीर में नहीं होते। अत: ये आत्मा के लक्षण कहे जाते हैं, अर्थात्‌ आत्मा का पूर्वोक्त लक्षणों से अनुमान मात्र किया जा सकता है। मानसिक कल्पना के अतिरिक्त किसी दूसरी इंद्रिय से उसका प्रत्यक्ष करना संभव नहीं है।
यह आत्मा नित्य, निर्विकार और व्यापक होते हुए भी पूर्वकृत शुभ या अशुभ कर्म के परिणामस्वरूप जैसी योनि में या शरीर में, जिस प्रकार के मन और इंद्रियों तथा विषयों के संपर्क में आती है वैसे ही कार्य होते हैं। उत्तरोत्तर अशुभ कार्यों के करने से उत्तरोत्तर अधोगति होती है तथा शुभ कर्मों के द्वारा उत्तरोत्तर उन्नति होने से, मन के राग-द्वेष-हीन होने पर, मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इस विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा तो निर्विकार है, किंतु मन, इंद्रिय और शरीर में विकृति हो सकती है और इन तीनों के परस्पर सापेक्ष्य होने के कारण एक का विकार दूसरे को प्रभावित कर सकता है। अत: इन्हें प्रकृतिस्थ रखना या विकृत होने पर प्रकृति में लाना या स्वस्थ करना परमावश्यक है। इससे दीर्घ सुख और हितायु की प्राप्ति होती है, जिससे क्रमश: आत्मा को भी उसके एकमात्र, किंतु भीषण, जन्म मृत्यु और भवबंधनरूप रोग से मुक्ति पाने में सहायता मिलती है, जो आयुर्वेद में नैतिष्ठकी चिकित्सा कही गई है।
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http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/Visible-and-Invisible-World/entry

संकल्प शक्ति- सुपर चेतन मन -विज्ञान
गीता झा   Wednesday October 03, 2012

संकल्प शक्ति

संकल्प शक्ति मस्तिष्क के वे हाई momentum वाले विचार हैं जिनकी गति अत्यंत तीब्र और प्रभाव अति गहन होतें  हैं और अत्यंत शक्तिशाली होने के कारण उनके  परिणाम भी शीघ्रः प्राप्त होतें  है.

मन के तीन भाग या परतें
भावना, विचारणा और व्यवहार मानवीय व्यक्तितिव के तीन पक्ष हैं उनके अनुसार मन को भी तीन परतों में विभक्त किया जा सकता है :
 आम ताओर पर भौतिक जानकारी संग्रह करने वाले चेतन - मस्तिष्क  [Conscious- Mind ]  और ऑटोनोमस नर्वस सिस्टम को प्रभावित करने वाले अचेतन - मस्तिष्क  [Sub- Conscious - Mind] कहा जाता है। परंतु एक बड़ा वर्ग अचेतन [un- Conscious - Mind] को भी स्वीकार कारता है। पर अब अतीन्द्रिय - मस्तिष्क [Super-Conscious -Mind] का अस्तित्व भी स्वीकारा जाता हैं .

हुना [Huna]
हुना [Huna]  का अर्थ हवाई द्वीप  [ Phillippines ] में गुप्त या सीक्रेट  है. शरीर , मन और आत्मा के एकीकरण पर आधारित हुना -तकनीक लगभग 2000 वर्ष पुरानी परामानोविज्ञानिक रहस्यवादी स्कूल हैं. इस गूढ़ और गुप्त तकनीक के प्रयोग से एक साधारण मनुष्य अपनी संकल्प शक्ति द्वारा अपने अन्तराल में प्रसुप्त पड़ी क्षमताओं को जगा कर और विशाल ब्रह्माण्ड में उपस्थित शक्तिशाली चेतन तत्त्वों को खीचकर अपने में धरण कर अपने आत्मबल को इतना जागृत कर सकता हैं की वह अपने व्यक्तिगत और सामाजिक परिस्थितिओं  में मनचाहा परिवर्तन ला सके .

हुना के अनुसार मन की तीन परतें

Llower –Self [Unconsious- Mind]----- यह Rib-Cage  में स्थित है.
Middle -Self [Consious -Mind] ------यह भ्रूमध्य में पीनल ग्लैंड में स्थित है.
Higher –Self [Super-Consious-Mind] -------यह सर से लगभग 5 फीट की उच्चाई पर स्थित है.

Lower –Self : यह हमारा अचेतन मन है.समस्त अनुभवों और भावनाओं का केंद्र है. Middle -Self द्वारा इसे निर्देश और आदेश देकर कार्य करवाया जा सकता है. समस्त जटिल गिल्ट कोम्प्लेक्सेस , तरह - तरह की आदतें, आस्थाएं, सदेव Lower -Self में संचित रहतें हैं.   Lower -Self स्वयं  कोई भी तार्किक या बुद्धि पूर्ण  निर्णय लेने में पूर्ण रूप से असमर्थ है.

Middle -Self : यह हमारा चेतन मन है जिससे हम सोच-विचार करते हैं और निर्णय लेते हैं. यह हमारे बुद्धि के स्तर को दर्शाता है.

Higher- Self : मानव मस्तिष्क का वह भानुमती का पिटारा है जिसमें अद्भुत और आश्चर्य जनक क्षमताएं भरी पड़ी हैं, , जिन्हें अगर जीवंत-जागृत कर लिया जाए तो मनुष्य दीन -हीन स्थिति  में न रह कर अनंत क्षमताओं   को अर्जित कर सकता है. Higher-Self में किसी भी समस्या या परिस्थिति का समाधान करने की असाधारण क्षमता है. यह तभी संभव हो पाता है जब हम उससे मदद मांगें. Higher - Self कभी भी मानव के साधारण क्रिया-कलापों में दखलांदाजी  नहीं करा है जब तक विशेष रूप से उससे मदद न मांगी जाये.

 हुना द्वीप वासी किसी देवी-देवता की जगह अपने कार्यों या प्रयोजनों  की सिद्धि के लिए अपने   Higher – Self पर  पूर्ण रूप से आश्रित होतें हैं और उसीसे से ही प्रार्थना करते हैं.
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बड़ा शक्तिशाली है हमारा मन
मन को एक महाशक्ति माना गया है। जिस तरह हमारे समूचे कायतंत्र-संचालन मन द्वारा होता है, उसी प्रकार सृष्टि का-समूचे विश्व-ब्रह्माण्ड नियमन-संचालन विराट मन से होता है। मानवीय मन चेतन और अचेतन नामक दो प्रमुख भागों में विभक्त होता है। अचेतन मन रक्तभिसरण, आकुंचन-प्रकुंचन, श्वास-प्रश्वास जैसे अनवरत गति से होते रहने वाले क्रियाकलापों का नियंत्रण करता है। चेतन मन के आदेश से ज्ञानेंद्रियां, कर्मेद्रियां, एवं दूसरे अवयव काम करते हैं। अनियंत्रित मन अस्त-व्यस्त हो जाता है और विभिन्न प्रकार की बेढंगी हरकतें-हलचलें करने लगता है। शरीर को नीरोग एवं परिपुष्ट रखने के लिए मन को संयमी और सदाचारी, निर्मल और पवित्र बनाना पड़ता है।